समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे

लैंगिक मुद्दे

लैंगिक (Gender) असमानता का आधार स्त्री और पुरुष की जैविक बनावट ही नहीं, बल्कि इन दोनों के बारे में प्रचलित रूढ़ छवियाँ और स्वीकृत सामाजिक मान्यताएँ हैं।

लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में यह मान्यता उनके मन में बैठा दी जाती है कि महिलाओं की मुख्य जिम्मेदारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण करने की है। यह तथ्य अधिकतर परिवारों के श्रम के लैंगिक विभाजन से झलकता है।

महिलाएँ घरेलू कार्य करती हैं; जैसे- भोजन बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना आदि, जबकि पुरुष घर के बाहर का काम करते हैं। ऐसा नहीं है कि पुरुष ये सारे काम नहीं कर सकते। दरअसल वे सोचते हैं कि ऐसे कामों को करना महिलाओं की जिम्मेदारी है।

लिंग के आधार पर श्रम का विभाजन

.यह कार्य के बँटवारे का वह तरीका है, जिसमें घर के अन्दर के सारे काम परिवार की औरतें करती हैं या अपनी देख-रेख में घरेलू नौकरों/नौकरानियों से कराती हैं।

श्रम के इस तरह के विभाजन का परिणाम यह हुआ है कि औरत तो घर की चारदीवारी के अन्दर सिमट कर रह गई है और बाहर का सार्वजनिक जीवन पुरुषों के कब्जे में आ गया है। मनुष्य जाति की आबादी में महिलाओं का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में खासकर राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य ही है।

पहले महिलाओं को सार्वजनिक जीवन से सम्बन्धित बहुत-से अधिकार प्राप्त नहीं थे। दुनिया के अलग-अलग भागों में महिलाओं ने अपने संगठन बनाए और बराबरी के अधिकार हासिल करने के लिए आन्दोलन किए। विभिन्न देशों में महिलाओं को मतदान का अधिकार प्रदान करने के लिए आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों में महिलाओं के राजनीतिक और वैधानिक दर्जे को ऊंचा उठाने और उनके लिए शिक्षा तथा रोजगार के अवसर बढ़ाने की माँग की गई।

  • मूल बदलाव की मांग करने वाले महिला आन्दोलनों ने महिलाओं के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग उठाई। इन आन्दोलनों को नारीवादी आन्दोलन कहा जाता है।
  • लैंगिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति और इस सवाल पर राजनीतिक गोलबन्दी ने सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका को बढ़ाने में मदद की। आज हम वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबन्धक, कॉलेज और विश्वविद्यालयी शिक्षक जैसे पेशों में बहुत-सी महिलाओं को पाते हैं, जबकि पहले इन कामों को महिलाओं के लायक नहीं माना जाता था। दुनिया के कुछ हिस्सों; जैसे- स्वीडन, नावें और फिनलैण्ड जैसे स्कैंडिनेवियाई देशों में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर काफी ऊँचा है।

हमारे देश में आजादी के बाद से महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है पर वे अभी भी पुरुषों से काफी पीछे हैं। हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। महिलाओं के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव एवं उनका शोषण होता है।

महिलाओं में साक्षरता की दर अभी भी मात्र 65% है, जबकि पुरुषों में 82%। इसी प्रकार स्कूल पास करने वाली लड़कियों की एक सीमित संख्या ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पाती है।

जब हम स्कूली परीक्षाओं के परिणाम पर गौर करते हैं तो देखते हैं कि कई जगह लड़कियों ने बाजी मार ली है और कई जगहों पर उनका प्रदर्शन लड़कों से बेहतर नहीं तो कमतर भी नहीं है, लेकिन आगे की पढ़ाई के दरवाजे उनके लिए बन्द हो जाते हैं, क्योंकि माता-पिता अपने संसाधनों को लड़के-लड़की दोनों पर बराबर खर्च करने की जगह लड़कों पर ज्यादा खर्च करना पसन्द करते हैं।

समान मजदूरी से सम्बन्धित अधिनियम में कहा गया है कि समान काम के लिए समान मजदूरी दी जाएगी, किन्तु काम के प्रत्येक क्षेत्र में यानी खेल-कूद की दुनिया से लेकर सिनेमा के संसार तक और कल कारखानों से लेकर खेत-खलिहान तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है, भले ही दोनों ने समान काम किया हो।

भारत के अनेक हिस्सों में आज भी माता-पिता को लड़के की चाह होती है। लड़की को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देने के तरीके इसी मानसिकता से पनपते हैं।

पूर्वाग्रह और रूढ़िवाद के कारण लैंगिक भेदभाव

सामान्यतः पूर्वाग्रह एवं रूढ़िबद्धता के कारण लैंगिक भेदभाव दिखाई पड़ता है।

जब किसी व्यक्ति, जाति, वर्ग या वस्तु के बारे में कोई ऐसी धारणा बन जाती है, जो वास्तविकता से परे हो, उन्हें रूढ़िवद्ध धारणाएँ कहते हैं। उदाहरणस्वरूप भारत में अधिकतर घरों में लड़कियाँ घरेलू कार्य करती है। इसी के आधार पर कोई व्यक्ति सभी लड़कियों से यही अपेक्षा करे कि लड़कियाँ केवल घर का कार्य करने के लिए ही बनी है, तो इस प्रकार की धारणा को रूढ़िबद्ध धारणा कहा जाता है।

समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे

  • यदि कोई शिक्षक विद्यालय में आए अतिथि की खान-पान सम्बन्धी सेवा के लिए विद्यालय की लड़कियों को ही नियुक्त करना चाहता है, तो यह उस शिक्षक की रूढ़िबद्ध धारणा को दर्शाता है।
  • पूर्वाग्रह का सम्बन्ध पक्षपात से है। इसमें पूर्व के विचारों के आधार पर किसी से भेदभाव किया जाता है। सामान्यतः हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव का कारण पूर्वाग्रह भी है। उदाहरण के लिए ‘लड़के, लड़कियों से अधिक बुद्धिमान होते हैं, यह लैगिक पूर्वाग्रह का उदाहरण है। लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण ही समाज में यह मान्यता प्रचलित है कि लड़के ही वृद्धावस्था में माँ-बाप का सहारा होते हैं।
  • विद्यालय की गायन एवं नृत्य प्रतियोगिता के लिए विद्यार्थियों को तैयार करते समय लड़कियों को वरीयता देना भी लैंगिक पूर्वाग्रह का उदाहरण है।
  • लड़कियों को खेलने से वंचित करना भी लैंगिक पूर्वाग्रह का उदाहरण है। इसके पीछे यह धारणा है कि लड़कियों का शरीर खेल-कूद के लिए उपयुक्त नहीं होता, जो पूर्णतः गलत है।
  • यह कहना कि लड़कियों को घरेलू कार्य के ज्ञान पर अधिक जोर देना चाहिए, क्योंकि अन्ततः उन्हें गृहस्थी ही सँभालनी है।
  • इस प्रकार की धारणा रूढ़िबद्धता को प्रदर्शित करती है।
  • सामान्यतः यह माना जाता है कि स्त्रियों में स्मृति कौशल अपेक्षाकृत अधिक होता है, जबकि पुरुषों में गत्यात्मक योग्यता अधिक होती है, किन्तु यह प्रत्येक स्थिति के लिए सत्य नहीं है।
  • स्त्रियाँ भी गत्यात्मक योग्यता में पुरुषों के समान अथवा अधिक एवं पुरुष भी स्मृति कौशल के मामले में स्त्रियों के समान या अधिक हो सकते हैं, जैसा कि हम सामान्यतः देखते हैं।
  • इसलिए शिक्षकों को इस प्रकार की जानकारी होनी चाहिए ताकि किसी के व्यक्तित्व के बारे में उसकी धारणा लैंगिक पूर्वाग्रह या रूढ़िबद्धता से प्रभावित न हो।

विद्यालय में लैंगिक भेदभाव

  • विद्यालय में भी लैंगिक भेदभाव (Gender Differentiation in School) दिखाई पड़ता है, जोकि शिक्षकों के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है। इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण संविधान के मानवीय एवं नैतिक दृष्टिकोण से भी पूर्णतः गलत है।
  • विद्यालय में लैंगिक भेदभाव न हो इसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षकों को लिंग-पक्षपातपूर्ण व्यवहारों का अधिसंज्ञान हो अर्थात् उन्हें लिंग-भेद से सम्बन्धित विभिन्न पूर्वाग्रहों एवं रूढ़िबद्धता का ज्ञान हो, तभी वे इस प्रकार के व्यवहार को हतोत्साहित कर सकते हैं। शिक्षकों को रूढ़िबद्ध धारणाओं से बचना चाहिए एवं लड़कों व लड़कियों से समान व्यवहार करना चाहिए।
  • शिक्षकों को लैंगिक पूर्वाग्रह एवं रूढिबद्धता से ऊपर उठकर सभी छात्र एवं छात्राओं को पढ़ाई, खेल-कूद, विद्यालय समारोह आदि में समान अवसर उपलब्ध कराना चाहिए।
  • समाज से लैंगिक पूर्वाग्रह एवं रूढ़िबद्धता को समाप्त करने के लिए शिक्षकों का यह दायित्व है कि वह उदाहरण देकर छात्र-छात्राओं को यह समझाएँ कि लड़कियाँ भी घर के बाहर का कार्य करती हैं, जैसे कि आजकल लड़कियाँ सेना, खेल-कूद, जैसे क्षेत्रों में भी अच्छे प्रदर्शन कर रही हैं। इसी प्रकार घरेलू कार्य में लड़कों को भी सहयोग करना चाहिए। इस प्रकार के विचारों के प्रसार में शुरुआत में थोड़ी कठिनाई अवश्य हो सकती है, किन्तु इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
  • समाज से लैगिक पूर्वाग्रह एवं रूढिबद्धता को समाप्त करने के लिए विद्यालय परिसर में लगे बुलेटिन-बोडों में पुरुषों को घर का काम करते हुए एवं बच्चों की देखभाल करते हुए चित्र तथा स्त्रियों को घर के, बाहर के काम जैसे- मोटरसाइकिल एवं ट्रेन चलाते हुए तथा ऑफिस के कार्य संभालते हुए चित्र दर्शाना चाहिए।
  • कई बार यह देखने को मिलता है कि कोई लड़का नृत्य-संगीत अथवा फैशन में अधिक रुचि लेता है, किन्तु उसके शिक्षक एवं अभिभावक उसे ऐसे करियर से दूर रहकर अभियान्त्रिकी (Engineering) पढ़ने की सलाह देते हैं, क्योंकि उनका मानना होता है कि नृत्य-संगीत अथवा फैशन जैसे क्षेत्र लड़कियों के लिए उचित है।
  • यदि रुचि एवं उत्साह को नजरअन्दाज कर किसी बालक को अन्य करियर अपनाने की सलाह दी जाती है तो इसका प्रतिकूल प्रभाव उसकी सफलता पर पढ़ता है एवं उसके असफल होने की सम्भावना अधिक होती है।

कई बार यह भी देखने को मिलता है कि लड़कियों को जीवविज्ञान या गृहविज्ञान के क्षेत्र में करियर बनाने की सलाह दी जाती है, भले ही उसको रुचि भौतिकशास्त्र एवं गणित में क्यों न हो। इस प्रकार का निर्देशन एवं परामर्श पूर्णत: गलत है। कल्पना चावला एवं सुनीता विलियम्स ने इस बात का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है कि गणित, भौतिकशास्त्र एवं अभियान्त्रिकी में लड़कियाँ भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती है।

अध्यापकों को एक ऐसा वातावरण स्थापित करना चाहिए, जिससे कि कक्षा (class) में दोनों वर्गों को समान रखा जाए।

लिंग के आधार पर प्रोत्साहित करने के लिए बालिकाओं के लिए भारत सरकार एवं राज्य सरकारों ने कई योजनाएँ चला रखी हैं उदाहरण स्वरूप-बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, लाड़ली योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, मुख्यमन्त्री बालिका साइकिल योजना, बालिका पोशाक योजना इत्यादि।

लैंगिक भेदभाव उत्पन्न करने वाले कारक

लैंगिक आधार पर भेदभाव की समस्या प्राचीन काल से ही चली आ रही है, जोकि आधुनिक काल में भी विद्यमान है। मनोवैज्ञानिकों ने लैंगिक भेदभाव के निम्नलिखित कारक बताए है

  1. धार्मिक कारक (Deligious Factor) समाज धर्म द्वारा स्थापित प्राचीन मानदण्ड पर आधारित होता है। कुछ धर्मों में ऐसी मान्यता है कि लड़कियों को घर से बाहर नहीं जाना चाहिए, इस कारण वे शिक्षा से वंचित हो जाती हैं। संकीर्ण पारिवारिक एवं सामाजिक सोच भी लड़कियों को शिक्षा से मीलों दूर रखती है।
  2. आर्थिक कारक (Economic Factor) आर्थिक रूप से कमजोर समाज/परिवार में लड़कों को अधिक प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि वे आय के स्रोत होते हैं। ऐसे परिवेश में लड़कियों का सर्वांगीण विकास अवरुद्ध हो जाता है।

3. स्त्रियों का निम्न स्तर (Low Level of Women) समाज में स्त्रियों को निम्न दर्जा दिया जाता था तथा लैंगिक भेदभाव के कारण परिवार एवं समाज द्वारा उनकी शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया जाता था, परिणामस्वरूप स्त्रियों का मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता था। इससे महिलाएँ स्वयं को उपेक्षित महसूस करती थी तथा विकास की मुख्य धारा में नहीं जुड पाती थी।

  1. लड़‌कियों का कम आयु में विवाह (Marriage of Girls at Minor Age) पहले लड़कियों का विवाह बहुत कम आयु में हो जाता था तथा उन्हें पढ़ाया नहीं जाता था, जबकि लड़को को पढ़ाया जाता था, इससे लड़कियों का मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता था |
  2. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factor) प्राचीनकालीन समाज से प्रभावित व्यक्ति लड़कियों को पढ़ाने के पक्ष में नहीं होते हैं। यह आज भी भारत की कुछ जनजातियो एवं समाजों में देखने को मिलता है।
  3. व्यक्तित्व कारक (Personality Factor) लड़के एवं लड़कियों का व्यक्तित्व अलग-अलग होता है। लड़कियों में संवेगात्मक विकास लड़कों की अपेक्षा अधिक होता है अर्थात् उनमें कोमलता, सहनशीलता का भाव पाया जाता है। दोनों का व्यक्तित्व अलग होने के कारण उनमें भेदभाव उत्पन्न होता है।
  4. मनोवैज्ञानिक कारक (Psychology Factor) शिक्षा के प्रति कभी-कभौ लड़कियों को मनोवैज्ञानिक धारणा संकीर्ण होती है। उनके मन में यह भाव होता है कि पढ़-लिख कर क्या करना है, आखिर तो घर का ही काम करना है।

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